
पिप्पली दो प्रकार की होती है। छोटी पिप्पल और बड़ी पिप्पली। हमारे देश में प्राय: छोटी पिप्पल ही पाई जाती है। बड़ी पीपल अधिकतर इंडोनेशिया, मलेशिया, जावा, सुमात्रा में पाई जाती है। दोनों ही प्रकार की पिप्पली औषधीय गुणों में सामान होती है।इसका उपयोग देशी एवं आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति में प्रमुखता से किया जाता है।
भारत में यह नेपाल और नैनीताल की तराइयों में, मगध, मालवा, बिहार, असम, और रूहेलखंड के वनों में पायी जाती है। पिप्पली एक गुल्म रूपी लता होती है।इस लता के पते बहुत ही मुलायम और पान के पतों की तरह आगे से नुकीले होते है। इसके पुष्प फरवरी – मार्च के बीच में आते है एवं फल मार्च एवं अप्रेल में लगते है। इसके फल शहतूत के फल के समान दिखाई देते है, जब फल पक जाते है तो ये लाल रंग के होते है एवं फलों को सुखाने के बाद इनका रंग काला हो जाता है। इसकी लता भूमि या किसी वृक्ष पर फैली रहती है।
पिप्पली के गुणधर्म
यह स्वाद में चरपरी अर्थात इसका रस मधुर, कटु और तिक्त होता है एवं पाचन होने पर (विपाक) मधुर होती है। साथ ही वात – कफ शामक, अग्नि-दीपक, वातनाशक, शूल – शोथ नाशक, रक्तशोधक, बलवर्द्धक एवं रसायन होती है। इसकी उपयोग यकृत और प्लीहा व्रद्धी में भी किया जाता है। अस्थमा, श्वास, कास, खांसी, हिक्का (हिचकी), गुल्म, अर्श, कृमि रोग, कुष्ठ, प्लीहा रोग, ज्वर, आमवात और उदर रोगों में इसके सेवन से लाभ मिलता है।
रासायनिक संगठन
आयुर्वेद में इसके फल और मूल अर्थात पिप्पली और पिप्पली मूल का उपयोग किया जाता है। पिप्पली में एल्केलाईड पाइपरिन होता है , साथ ही इसमें एक सुगन्धित तेल , पाइपराइन और पिप्लर्टिन नामक क्षाराभ पाए जाते है। पिप्पलीमूल में ग्लाइकोसाइड, स्टेरॉयड, पाइपरलोंगुमीनिन आदि तत्व मिलते है।
पिप्पली के औषधीय प्रयोग एवं फायदे
श्वास एवं कास में छोटी पिप्पल को थोड़े से देशी घी में डालकर इसे हल्का भुन ले ।अब इसमें चौथाई भाग सेंधा नमक मिलाकर कूट-पीस कर इसका चूर्ण तैयार करले। इस चूर्ण का 3 ग्राम की मात्रा में सुबह और शाम सेवन करने से श्वास और कास रोग में लाभ मिलता है।
पेट के रोगों में 100 ग्राम पिप्पली को किसी काच बर्तन में डालकर ऊपर से उसमे 25 ग्राम सेंधा नमक या काला नमक पीसकर डालदें , साथ ही ऊपर से एक ग्राम निम्बू का रस डालदें और इसे हिलाकर रख दे । इसे बिच – बिच में हिलाते भी रहे। जब रस सुख जाये तो पिप्पली निकाल कर छाया में सुखा ले। 2 से 3 पिप्प्लिया प्रतिदिन दोनों समय भोजनोपरांत चबाकर खाएं। इसके इस्तेमाल से अग्निमंध्य, गैस बनना, पेट में गुडगुड होना, कब्जी, अपचन और अजीर्ण आदि उदर रोगों में फायदा मिलता है।
छोटी पिप्पल को पीसकर इसका चूर्ण बना ले। इस चूर्ण को 3 ग्राम की मात्रा में मट्ठे में मिलाकर नियमित कुछ दिनों तक सेवन करने से अस्थमा रोग से छुटकारा मिलता है।
अगर शरीर में किसी भी भाग में दर्द होतो पिपलामुल को बारीक़ कूट कर इसका चूर्ण बना ले।इसे 1 से 3 ग्राम की मात्रा में गर्म पानी या दूध के साथ सेवन करने से शरीर के किसी भी भाग का दर्द दूर हो जाता है।
पुराने बुखार या तिल्ली की वृद्धि में 20 ग्राम पिप्पली को कूटकर दरदरा कर ले .।इसे एक गिलास पानी में डालकर अच्छी तरह उबाले। जब पानी एक चौथाई रह जाये तब इसे छानकर इस्तेमाल करने से पुराना बुखार ठीक होता है एवं तिल्ली की विर्द्धि में भी फायदा मिलता है।
पिपप्ल्यादी चूर्ण (पिपली, काकड़ासिंगी, अतिस और नागरमोथा सभी का सामान मात्रा में मिश्रण) का प्रयोग बच्चों की बुखार, अतिसार, श्वास, कास, हिक्का, पेचिस , वमन, सर्दी-जुकाम आदि रोगों में किया जा सकता है।इसके परिणाम भी सफल साबित होते है।
वातश्लेष्मिक ज्वर में पिपली के काढ़े के इस्तेमाल से लाभ मिलता है।
पिप्पली के आधे चम्मच चूर्ण को गुड के साथ लेने से बुखार शांत होती है एवं साथ ही पाचन भी ठीक होता है।
साभार :-
सुख सागर ट्रस्ट
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